उन्होने कहा मामला इस 30 प्रतिशत लोगों की उपेक्षा का है। बुनियादी सुविधा प्राप्त करना इनका हक है। इनके लिए कोई मुकम्मल व्यवस्था क्यों नहीं हो रही है । इन्हें कीड़े-मकोड़े से भी बदतर जीवन जीने के लिए छोड़ दिया गया। मरता क्या नहीं करता। ये गरीब लोग जैसे-तैसे नालियों, पूल और पुलियों के नीचे सोते हैं । नसीब बेहतर हुआ तो इनका रिक्शा और ठेला ही चलन्तु घर हो जाता है। और नसीब कुछ बेहतर हुआ तो फिर किसी खाली जमीन पर प्लास्टिक का तंबू लग जाता है। तब फिर खेल शुरू होता है माफिया,दलाल और छूटभइये नेताओं का। चंदा-चुटकी और फिर वही वसूली का धंधा। कौन उजाड़े और कौन बसाये की राजनीति भी खड़ी होने लगती है।
उन्होने कहा बस्ती के लोगों ने जिंदगी झोंककर अपने हिस्से के शहर को बसाया और सजाया। इतने महत्व के लोगों की ऐसी दुर्दशा क्यों? ये क्यों धूप में तप रहे हैं, बरसात और ठंढ में भींग और ठिठुर रहे हैं? उन्होने कहा शहर, इन गरीबों की जरूरत नही है, बल्कि शहर को ही इनकी जरूरत है। गरीब कभी भी गांव, पुरखों की विरासत , परिजनों और परिवार को छोड़ नहीं आना चाहते हैं।अगर इनकी आजीविका के आधार खेती-किसानी और कुटीर-उद्योग इसी शहरीकरण की सूली पर नही चढ़ाए गए होते तो ये गरीब मजदूर शहर झांकने भी नहीं आते। ये तो बाजार और बजरुआ जैसे शब्द को गाली की तरह ही यूज करते रहे हैं। शहर की ओर भागते लोगों को देखा होगा आपने? क्यों नहीं हम अपना गुनाह कबूल करते कि ये सरकार के सताए हुए लोग हैं। इनके इस नाजायज दुख के जिम्मेदार सरकार है ?
झुग्गी-झोपड़ी जैसे शब्द जनवादी घराने के शब्द हैं। यहां पलती है बेबसी। जन्म लेते हैं दुख । प्रतिव्यक्ति दुख मापने का कोई इंडेक्स यहां काम नही करता। इन बस्तियों में बासीपन, दारिद्र और दुर्गन्ध हैं। बस्तियां ही वस्त्र हैं जहां नंगे रहा जा सकता है। जार-जार झरोखा और तार-तार होती इनकी इज्जत। चारपाई की भी कई मंजिलें हैं। यहां प्रेम और प्रसव की भी कोई निजता नहीं होती। घिनायी हुई अस्मिता का दुर्गंध। यह कोई वर्ग-संघर्ष नहीं, बस्ती-संघर्ष है।
बता दें बस्ती जनपद में प्रशासन और नगरपालिका के द्वारा अतिक्रमण हटाओ अभियान पिछले कुछ दिनों से चल रहा है ।जिसमें कल कंपनीबाग चौराहे से लेकर पानी टंकी तक का अतिक्रमण हटाया गया।जिसके लिए बुलडोजर और भारी पुलिस बंदोबस्त भी देखने को मिला।